दोहा –
सिद्धप्रभू को नमन कर, सिद्ध करूँ सब काम।
सत्रहवें तीर्थेश का, करना है गुणगान।।१।।
कुन्थुनाथ भगवान हैं, श्रीकांता के लाल।
कामदेव हैं तेरवें, उनको करूँ प्रणाम।।२।।
श्रीजिनवाणी मात की, हो जावे शुभदृष्टि।
तभी पूर्ण हो जाएगी, गुणगाथा संक्षिप्त।।३।।
चौपाई –
कुन्थु को नमन हमारा, इक-दो बार नहीं सौ बारा।।१।।
पिता आपके शूरसेन थे, गजपुर[१] नगरी के नरेश थे।।२।।
प्रभु तुम तीर्थंकर सत्रहवें, कामदेव भी थे तेरहवें।।३।।
छठे चक्रवर्ती भी तुम हो, तीन-तीन पद से शोभित हो।।४।।
गर्भ से ही त्रयज्ञान के धारी, प्रभु की महिमा जग से न्यारी।।५।।
जन्म लिया प्रभु मध्यलोक में, खुशियाँ छाईं तीनलोक में।।६।।
सुरपति ऐरावत हाथी से, स्वर्ग से आता मनुजलोक में।।।७।।
नगरी की त्रयप्रदक्षिणा दे, जाते हैं सब राजमहल में।।८।।
पति की आज्ञा से शचि देवी, जाती माता के प्रसूति गृह।।९।।
वहाँ बिना बोले वह देवी, जिनमाता को वंदन करती।।१०।।
पुन: सुला देती माता को, मायामयी गाढ़ निद्रा में।।११।।
मायावी दूजा बालक इक, सुला दिया माँ के समीप में।।१२।।
जिनबालक को लाई बाहर, इन्द्रराज को सौंप दिया तब।।१३।।
इन्द्र एक हजार नेत्र से, प्रभु को निरखे तृप्त न होते।।१४।।
प्रभु को लेकर ऐरावत से, पहुँच गए वे गिरि सुमेरु पे।।१५।।
वहाँ शिला इक पाण्डुकनामा, जो निर्मित ईशान दिशा मा।।१६।।
उस पर किया जन्म अभिषव था, नभ में जय-जय कोलाहल था।।१७।।
वह वैशाख सुदी एकम् की, तिथि भी पावन-पूज्य बनी थी।।१८।।
जन्म न्हवन के बाद इन्द्र ने, मात-पिता को सौंपा बालक।।१९।।
सभी गए अपने स्वर्गों में, जीवन अपना धन्य वे समझें।।२०।।
राज्य अवस्था में इक दिन प्रभु, क्रीड़ा कर वापस लौटे जब।।२१।।
दिखे मार्ग में एक महामुनि, आपत योग में वे थे स्थित।।२२।।
पूछा मंत्री ने हे राजन्!, क्यों करते ये कठिन महातप?।।२३।।
चक्रवर्ती कुन्थुप्रभु बोले, ये कर्मों को नष्ट करेंगे।।२४।।
पुन: शीघ्र ही ये मुनिराजा, प्राप्त करेंगे शाश्वत धामा।।२५।।
समझाया उनने मंत्री को, यह संसार क्षणिक है नश्वर।।२६।।
पुन: गए वे राजमहल में, मग्न हो गए सुख-वैभव में।।२७।।
तभी एक दिन कुन्थुनाथ ने, जातिस्मरण से पाई विरक्ती।।२८।।
देव लाए तब विजया पालकि, उसमें बैठाया प्रभु जी को।।२९।।
गये सहेतुक वन में प्रभु जी, तिलकवृक्ष के नीचे तिष्ठे।।३०।।
प्रभु ने जिनदीक्षा स्वीकारी, किया इन्द्र ने उत्सव भारी।।३१।।
पुन: चैत्र सुदि तीज तिथी को, केवलज्ञान हुआ प्रभु जी को।।३२।।
समवसरण के मध्य गंधकुटि, उस पर राजें अधर प्रभू जी।।३३।।
बरसाई धर्मामृत धारा, जिससे हुआ जगत उद्धारा।।३४।।
इसके बाद प्रभू जी पहुँचे, तीर्थराज सम्मेदशिखर पे।।३५।।
नष्ट किए जब कर्म अघाती, तब प्रभु जी ने पाई मुक्ती।।३६।।
तिथि वैशाख सुदी एकम् की, पूज्य हुई प्रभु मोक्षगमन से।।३७।।
प्रभु को कहीं नहीं अब जाना, सिद्धशिला है शाश्वत धामा।।३८।।
मैं भी प्रभु! ऐसा पद पाऊँ, बार-बार नहिं जग में आऊँ।।३९।।
क्योंकी भगवन्! अब भ्रमने की, नहीं ‘‘सारिका’’ को है शक्ती।।४०।।
शंभु छंद –
कुन्थुनाथ भगवान का, यह चालीसा पाठ।
चालिस दिन तक जो पढ़े, नित चालीसहिं बार।।१।।
निश्चित ही उन भव्य की, यशकीर्ती बढ़ जाए।
रोग-शोक-संकट टलें, सुख-सम्पत्ति मिल जाए।।२।।
गणिनीप्रमुख महान हैं, ज्ञानमती जी मात।
शिष्या उनकी कविहृदया, प्रज्ञाश्रमणी मात[२]।।३।।
पाकर उनकी प्रेरणा, लिखा ये मैंने पाठ।
इसको पढ़कर हों सुलभ, जग के सब सुख-ठाठ।।४।।