Namokar Mantra Chalisa – णमोकार मंत्र चालीसा

दोहा

सब सिद्धों को नमन कर, सरस्वती को ध्याय।
चालीसा नवकार का ,लिखूं त्रियोग लगाय।

चौपाई –

महामंत्र नवकार हमारा।
जन जन को प्राणों से प्यारा।

मंगलमय यह प्रथम कहा है।
मंत्र अनादि निधन महा है।

षट खण्डागम में गुरुवर ने।
मंगलाचरण लिखा प्राकृत में।

यहीं से ही लिपिबद्ध हुआ है
भवि जन ने डर धार लिया है।

पाँचो पद के पैतीस अक्षर।
अट्ठावन मात्रा हैं सुखकर।

मंत्र चौरासी लाख कहाए ,
इससे ही निर्मित बतलाए।

अरिहंतो को नमन किया है।
मिथ्यातम को वमन किया है।

सब सिद्धों को वन्दन करके।
झुक जाते भावों में भर के।

आचार्यो की पदभक्ति से।
जीव उबरते निज शक्ति से।

उपाध्याय गुरुओं का वंदन।
मोह तिमिर का करता खण्डन।

सर्व साधुओं को मन लाना।
अतिशयकारी पुण्य बढ़ाना।

मोक्ष महल की नीव बनाता।
अतः मूलमंत्र कहलाता।

स्वर्णाक्षर में जो लिखवाता।
सम्पत्ति से टूटे नहीं नाता।

णमोकार के अदभुत महिमा।
भक्त बने भगवन ये गरिमा।

जिसने इसको मन से ध्याया।
मनचाहा फल उसने पाया।

अहंकार जब मन का मिटता।
भव्य जीव तब इसको जपता।

मन से राग द्धेष मिट जाता।
समात भाव हृदय में आता।

अंजन चोर ने इसको ध्याया।
बने निरंजन निज पद पाया।

पार्श्वनाथ ने इसे सुनाया।
नाग – नागनी सुर पद पाया।

चाकदत्त ने अज को दीना।
बकरा भी सुर बना नवीना।

सूली पर लटके कैदी को।
दिया सेठ ने आत्म शुद्धि को।

हुई शांति पीड़ा हरने से।
द्वे बना इसको पढ़ने से।

पद्म रुचि के बैल को दीना।
उसने भी उत्तम पद लीना।

श्वान ने जीवन्धर से पाया।
मरकर वह भी देव कहाया।

प्रातः प्रतिदिन जो पढ़ते हैं।
अपने दुःख – संकट हरते हैं।

जो नवकार की भक्ति करते।
देव भी उनकी सेवा करते।

जिस जिसने भी इसे जपा है।
वही स्वर्ण सम खूब तपा है।

तप – तप कर कुंदन बन जाता।
अन्त में मोक्ष परम पद पाता।

जो भी कण्ठ हार कर लेता।
उसको भव भव में सुख देता

जिसने इसको शीश पे धारा।
उसने ही रिपु कर्म निवारा।

विश्व शांति का मूलमंत्र है।
भेद ज्ञान का महामंत्र है।

जिसने इसका पाठ कराया।
वचन सिद्धि को उसने पाया।

खाते – पीते – सोते जपना।
चलते -फिरते संकट हरना।

क्रोध अग्नि का बल घट जावे।
मंत्र नीर शीतलता लावे।

चालीसा जो पढ़े पढ़ावे।
उसका बेडा पार हो जावे।

क्षुलकमणि शीतल सागर ने।
प्रेरित किया लिखा ‘ अरुण ‘ ने।

तीन योग से शीश नवाऊँ।
तीन रतन उत्ताम पा जाऊ।

पर पदार्थ से प्रीत हटाऊँ।
शुद्धातम के ही गुण गाऊँ।

हे प्रभु ! बस ये ही वर चाहूँ।
अंत समय नवकार ही ध्याऊँ।

एक एक सीढ़ी चढ़ जाऊँ।
अनुक्रम से निज पद पा जाऊँ।

सोरठा

पंच परम परमेष्ठी , है जग में विख्यात।
नमन करे जो भाव से ,शिव सुख पा हर्षात।
( समाप्त )

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